छत्तीसगढ़ के मेले
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छत्तीसगढ़ के मेले
(रायपुर – बिलासपुर संभाग)
अगहन माह –
गीता का उद्धरण है- ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहं …’, अगहन को माहों में श्रेष्ठ कहा गया है
बड़े भजन रामनामी मेला
- मेलों की गिनती का आरंभ, अंचल की परम्परा के अनुरूप, प्रथम के पर्याय- ‘राम’ अर्थात्, रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है, जिसमें पूस सुदी ग्यारस को अनुष्ठान सहित चबूतरा और ध्वजारोहण की तैयारियां होती हैं
- दशी को झंडा चढ़ाने के साथ ही मेला औपचारिक रूप से उद्घाटित माना जाता है,
- तीसरे दिन त्रयोदशी को भण्डारा होता है, इस हेतु दो बड़े गड्ढे खोदे जाते, जिन्हें अच्छी तरह गोबर से लीप-सुखा कर भंडारण योग्य बना लिया जाता। भक्तों द्वारा चढ़ाए और इकट्ठा किए गए चावल व दाल को पका कर अलग-अलग इन गड्ढों में भरा जाता, जिसमें मक्खियां नहीं लगतीं। यही प्रसाद रमरमिहा अनुयायियों एवं अन्य श्रद्धालुओं में वितरित होता।
- संपूर्ण मेला क्षेत्र में जगह-जगह रामायण पाठ होता रहता है। नख-शिख ‘रामराम’ गोदना वाले, मोरपंख मुकुटधारी, रामनामी चादर ओढ़े रमरमिहा स्त्री-पुरूष मेले के दृश्य और माहौल को राममय बना देते हैं।
पौष माह के विभिन्न मेले
- पौष पूर्णिमा अर्थात् छेरछेरा पर्व पर तुरतुरिया, सगनी घाट (अहिवारा), चरौदा (धरसीवां) और गोर्रइया (मांढर) का मेला भरता है।
- इसी तिथि पर अमोरा (तखतपुर), रामपुर, रनबोर (बलौदाबाजार) का मेला होता है, यह समय रउताही बाजारों के समापन और मेलों के क्रम के आरंभ का होता है, जो चैत मास तक चलता है।
- जांजगीर अंचल की प्रसिद्ध रउताही मड़ई हरदी बजार, खम्हरिया, बलौदा, बम्हनिन, पामगढ़, रहौद, खरखोद, ससहा है। क्रमशः भक्तिन (अकलतरा), बाराद्वार, कोटमी, धुरकोट, ठठारी की रउताही का समापन सक्ती के विशाल रउताही से माना जाता है।
- बेरला (बेमेतरा) का विशाल मेला भी पौष माह में (जनवरी में शनिवार को) भरता है।

रामराम मेला
- सिद्धमुनि आश्रम, बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है।
- शरद पूर्णिमा पर ही बरमकेला के पास तौसीर में मेला भरता है, जिसमें अमृत खीर प्रसाद, शरद पूर्णिमा की आधी रात से सूर्योदय तक बंटता है।
- कुदरगढ़ और रामगढ़, उदयपुर (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है।
- शंकरगढ़ का घिर्रा मेला पूस सुदी नवमी को होता है, जिसमें विभिन्न ग्रामों के रंग-बिरंगे ध्वजों के साथ ‘ख्याला’ मांगने की परम्परा है।
- सरगुजा का ‘जतरा’ यानि घूम-घूम कर लगने वाला मेला अगहन मास के आरंभ से उमको होता हुआ सामरी, कुसमी, डीपाडीह, भुलसी, दुर्गापुर होकर शंकरगढ़ में सम्पन्न होता है।
- कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़, साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है।
- भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में सरगुजा-कोरिया अंचल के पटना, बैकुण्ठपुर, चिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों में, विशेषकर जगदलपुर में गोंचा-दशहरा का मेला प्रमुख है, किन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा), ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है।
- सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरूप ले लेता है, जिन्हें हरिहाट मेला कहा जाता है और मकर संक्रांति पर जसपुर कछार (कोसीर), सहजपाली और पोरथ में मेला लगता है।
- मकर संक्रांति पर एक विशिष्ट परम्परा घुन्डइया मेला, महानदी में बघनई और सूखा नाला के संगम की त्रिवेणी के पास हथखोज (महासमुंद) में प्रचलित है।
- यहां भक्त स्त्री-पुरुष मनौती ले कर महानदी की रेत पर लेट जाते हैं और बेलन की तरह लोटने लगते हैं फिर रेत का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते हैं। संकल्प सहित इस पूरे अनुष्ठान को ‘सूखा लहरा’ लेना कहा जाता है।
क्वांर और चैत्र मास के विभिन्न मेले
- क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्ज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्या दस हजार पार कर जाती है।
- अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता है, जिसमें पहाड़ पर चढ़ने की प्रथा है।
- पारम्परिक तिथि-पर्वों से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला है, जो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को नियत है।
- रामकोठी के लिए प्रसिद्ध तेलीगुंडरा, पाटन में भी इसी अवसर पर मेला होता है।
माघ मास के विभिन्न मेले
- आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्स, राजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्स, लुतरा शरीफ (सीपत), सोनपुर (अंबिकापुर) और सारंगढ़ के उर्स का स्वरूप मेलों की तरह होता है।
- रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखली, सूरजगढ़, रेंगापाली, लेंध्रा, बरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैं, इनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है।
- इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा), दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयाजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं।
- दामाखेड़ा, कबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी है, जबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरूओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीरपंथी दीक्षा भी दी जाती है।
- गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी के विशिष्ट और विस्तृत पहाड़ी भू-भाग में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय विशाल मेले का समापन जैतखंभ में सफेद झंडा चढ़ाने के साथ होता है।
दामाखेड़ा का मेला
- शिवनाथ नदी के बीच मनोरम प्राकृतिक टापू मदकूघाट (जिसे मनकू, मटकू और मदकूदीप/द्वीप भी पुकारा जाता है), दरवन (बैतलपुर) में सामान्यतः फरवरी माह में सौ-एक साल से भरने वाला इसाई मेला और मालखरौदा का क्रिसमस सप्ताह का धार्मिक समागम उल्लेखनीय है।
- दुर्ग जिला का ग्राम नगपुरा प्राचीन शिव मंदिर के कारण जाना जाता है, किन्तु यहां से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा भी प्राप्त हुई है यहां दिसम्बर माह में शिवनाथ उत्सव, नगपुरा नमस्कार मेला का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें जैन धर्मावलंबियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति होती है।
- इसी प्रकार चम्पारण में वैष्णव मत के पुष्टिमार्गीय शाखा के अनुयायी पूरे देश और विदेशों से भी बड़ी तादाद में आते हैं। यह स्थान महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य स्थल माना जाता है, अवसर होता है उनकी जयंती, वैशाख बदी 11 का।
तिहार-बार मेला
- आमतौर पर प्रति तीसरे साल आयोजित होने वाले ‘बार’ में तुमान (कटघोरा) तथा बसीबार (पाली) का बारह दिन और बारह रात लगातार चलने वाले आयोजन का अपना विशिष्ट स्वरूप है।
- कटघोरा-कोरबा क्षेत्र का बार आगे बढ़कर, सरगुजा अंचल में ‘बायर’ नाम से आयोजित होता है। ‘बायर’ में ददरिया या कव्वाली की तरह युवक-युवतियों में परस्पर आशु-काव्य के सवाल-जवाब से लेकर गहरे श्रृंगारिक भावपूर्ण समस्या पूर्ति के काव्यात्मक संवाद होते हैं।
- कटघोरा क्षेत्र के बार में गीत-नृत्य का आरंभ ‘हाय मोर दइया रे, राम जोहइया तो ला मया ह लागे’ टेक से होता है।
- बायर के दौरान युवा जोड़े में शादी के लिए रजामंदी बन जाय तो माना जाता है कि देवता फुरमा (प्रसन्न) हैं, फसल अच्छी होगी।
- रायगढ़ की चर्चा मेलों के नगर के रूप में की जा सकती है। यहां रथयात्रा, जन्माष्टमी और गोपाष्टमी धूमधाम से मनाया जाता है और इन अवसरों पर मेले का माहौल रहता है। इस क्रम में गणेश चतुर्थी के अवसर पर आयोजित होने वाले दस दिवसीय चक्रधर समारोह में लोगों की उपस्थिति किसी मेले से कम नहीं होती।
- सारंगढ़ का रथयात्रा और दशहरा का मेला भी उल्लेखनीय है।
- बिलासपुर में चांटीडीह के पारम्परिक मेले के साथ, अपने नए स्वरूप में रावत नाच महोत्सव (शनिचरी) और लोक विधाओं के बिलासा महोत्सव का महत्वपूर्ण आयोजन होता है।
- रायपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर महादेव घाट का पारंपरिक मेला भरता है।
- छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात् आरंभ हुआ सबसे नया बड़ा मेला राज्य स्थापना की वर्षगांठ पर प्रतिवर्ष सप्ताह भर के लिए आयोजित होने वाला राज्योत्सव है।
- भोरमदेव उत्सव, कवर्धा (अप्रैल), रामगढ़ उत्सव, सरगुजा (आषाढ़), लोककला महोत्सव, भाटापारा (मई-जून), सिरपुर उत्सव (फरवरी), खल्लारी उत्सव, महासमुंद (मार्च-अप्रैल), ताला महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी), मल्हार महोत्सव, बिलासपुर (मार्च-अप्रैल), बिलासा महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी-मार्च), रावत नाच महोत्सव, बिलासपुर (नवम्बर), जाज्वल्य महोत्सव (जनवरी), शिवरीनारायण महोत्सव, जांजगीर-चांपा (माघ-पूर्णिमा), लोक-मड़ई, राजनांदगांव (मई-जून) आदि आयोजनों ने मेले का स्वरूप ले लिया है, इनमें से कुछ उत्सव-महोत्सव वस्तुतः पारंपरिक मेलों के अवसर पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में आयोजित किए जाते हैं, जिनमें श्री राजीवलोचन महोत्सव, राजिम (माघ-पूर्णिमा) सर्वाधिक उल्लेखनीय है।
राजिम मेला –
- राजिम मेला ‘श्री राजीवलोचन कुंभ’ के नाम से आयोजित होता है।
- माघ-पूर्णिमा पर भरने वाले इस मेले का केन्द्र राजिम होता है।
- महानदी, पैरी और सोंढुर त्रिवेणी संगम पर नदी के बीचों-बीच स्थित कुलेश्वर महादेव और ठाकुर पुजारी वाले वैष्णव मंदिर राजीवलोचन के साथ मेले का विस्तार पंचक्रोशी क्षेत्र में पटेवा (पटेश्वर), कोपरा (कोपेश्वर), फिंगेश्वर (फणिकेश्वर), चंपारण (चम्पकेश्वर) तथा बम्हनी (ब्रह्मणेश्वर) तक होता है।
- इन शैव स्थलों के कारण मेले की अवधि पूरे पखवाड़े, शिवरात्रि तक होती है, लेकिन मेले की चहल-पहल, नियत अवधि के आगे-पीछे फैल कर लगभग महीने भर होती थी।

राजिम मेला के एक प्रसंग से उजागर होता मेलों का रोचक पक्ष यह कि मेले में एक खास खरीदी, विवाह योग्य लड़कियों के लिए, पैर के आभूषण-पैरी की होती थी। महानदी-सोढुंर के साथ संगम की पैरी नदी को पैरी आभूषण पहन कर पार करने का निषेध प्रचलित है। इसके पीछे कथा बताई जाती है कि वारंगल के शासक अन्नमराज से देवी ने कहा कि मैं तुम्हारे पीछे-पीछे आऊंगी, लेकिन पीछे मुड़ कर देखा तो वहीं रुक जाऊंगी। राजा आगे-आगे, उनके पीछे देवी के पैरी के घुंघरू की आवाज दन्तेवाड़ा तक आती रही, लेकिन देवी के पैर डंकिनी नदी की रेत में धंसने लगे। घुंघरू की आवाज न सुन कर राजा ने पीछे मुड़ कर देखा और देवी रुक गईं और वहीं स्थापित हो कर दंतेश्वरी कहलाईं। लेकिन कहानी इस तरह से भी कही जाती है कि देवी का ऐसा ही वरदान राजा को उसके राज्य विस्तार के लिए मिला था और बस्तर से चल कर बालू वाले पैरी नदी में पहुंचते, देवी के पैर धंसने और आहट न मिलने से राजा ने पीछे मुड़ कर देखा, इससे उसका राज्य विस्तार बाधित हुआ। इसी कारण पैरी नदी को पैरी पहन कर (नाव से भी) पार करने की मनाही प्रचलित हो गई। संभवतः इस मान्यता के पीछे पैरी नदी के बालू में पैर फंसने और नदी का अनिश्चित प्रवाह और स्वरूप ही कारण है।
शिवरीनारायण-खरौद का मेला –
- शिवरीनारायण-खरौद का मेला भी माघ-पूर्णिमा से आरंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलता है।
मान्यता है कि माघ-पूर्णिमा के दिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर का ‘पट’ बंद रहता है और वे शिवरीनारायण में विराजते हैं। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु और मेलार्थी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। भक्त नारियल लेकर ‘भुंइया नापते’ या ‘लोट मारते’ मंदिर तक पहुंचते हैं, यह संकल्प अथवा मान्यता के लिए किये जाने वाले उद्यम की प्रथा है

शिवरी नारायण मेला
- उखरा और बताशा एक प्रकार से कथित क्रमशः ऊपर और खाल्हे राज के मेलों की पहचान भी है।
ऐतिहासिक दृष्टि से राजधानी होने के कारण रतनपुर, जो लीलागर नदी के दाहिने स्थित है, को ऊपर राज और लीलागर नदी के बायें तट का क्षेत्र खाल्हे राज कहलाया और कभी-कभार दक्षिणी-रायपुर क्षेत्र को भी पुराने लोग बातचीत में खाल्हे राज कहा करते हैं। बाद में राजधानी-संभागीय मुख्यालय रायपुर आ जाने के बाद ऊपर राज का विशेषण, इस क्षेत्र ने अपने लिए निर्धारित कर लिया, जिसे अन्य ने भी मान्य कर लिया। एक मत यह भी है कि शिवनाथ का दाहिना-दक्षिणी तट, ऊपर राज और बायां-उत्तरी तट खाल्हे राज, जाना जाता है, किन्तु अधिक संभव और तार्किक जान पड़ता है कि शिवनाथ के बहाव की दिशा में यानि उद्गम क्षेत्र ऊपर राज और संगम की ओर खाल्हे राज के रूप में माना गया है।
- छत्तीसगढ़ का काशी कहे जाने वाले खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन और लाखा चांउर चढ़ाने की परंपरा है, जिसमें हाथ से ‘दरा, पछीना और निमारा’ गिन कर साबुत एक लाख चांवल मंदिर में चढ़ाए जाने की प्रथा है।
- इसी क्रम में लीलागर के नंदियाखंड़ में बसंत पंचमी पर कुटीघाट का प्रसिद्ध मेला भरता है। इस मेले में तीज की तरह बेटियों को आमंत्रित करने का विशेष प्रयोजन होता है कि इस मेले की प्रसिद्धि वैवाहिक रिश्तों के लिए ‘परिचय सम्मेलन’ जैसा होने के कारण भी है।
रतनपुर मेला
- ‘लाखा चांउर’ की प्रथा हसदेव नदी के किनारे कलेश्वरनाथ महादेव मंदिर, पीथमपुर में भी है, जहां होली-धूल पंचमी पर मेला भरता है।
इस मेले की विशिष्टता नागा साधुओं द्वारा निकाली जाने वाली शिवजी की बारात है। मान्यता है कि यहां महादेवजी के दर्शन से पेट के रोग दूर होते है। इस संबंध में पेट के रोग से पीड़ित एक तैलिक द्वारा स्वप्नादेश के आधार पर शिवलिंग स्थापना की कथा प्रचलित है। वर्तमान मंदिर का निर्माण खरियार के जमींदार द्वारा कराया गया है, जबकि मंदिर का पुजारी परंपरा से ‘साहू’ जाति का होता है।
- कोरबा अंचल के प्राचीन स्थल ग्राम कनकी के जांता महादेव मंदिर का पुजारी परंपरा से ‘यादव’ जाति का होता है। इस स्थान पर भी शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला भरता है।
- चांतर राज में माघ पूर्णिमा पर भरने वाले अन्य बड़े मेलों में सेतगंगा, रतनपुर, बेलपान, लोदाम, बानबरद, झिरना, डोंगरिया (पांडातराई), खड़सरा, सहसपुर, चकनार-नरबदा (गंड़ई), बंगोली और सिरपुर प्रमुख है।
- इसी प्रकार शिवरात्रि पर भरने वाले प्रमुख मेलों में सेमरसल, अखरार, कोटसागर, लोरमी, नगपुरा (बेलतरा), मल्हार, पाली, परसाही (अकलतरा), देवरघट, तुर्री, दशरंगपुर, सोमनाथ, देव बलौदा और किलकिला पहाड़ (जशपुर) मेला हैं।
चंदरपुर का मेला
- रामनवमी से प्रारंभ होने वाले डभरा (चंदरपुर) का मेला दिन की गरमी में ठंडा पड़ा रहता है लेकिन जैसे-जैसे शाम ढलती है, लोगों का आना शुरू होता है और गहराती रात के साथ यह मेला अपने पूरे शबाब पर आ जाता है।
- संपन्न अघरिया कृषकों के क्षेत्र में भरने वाले इस मेले की खासियत चर्चित थी कि यह मेला अच्छे-खासे ‘कॅसीनो’ को चुनौती दे सकता था।
- यहां अनुसूचित जाति के एक भक्त द्वारा निर्मित चतुर्भुज विष्णु का मंदिर भी है।
- कौड़िया का शिवरात्रि का मेला प्रेतबाधा से मुक्ति और झाड़-फूंक के लिए जाना जाता है।
- कुछ साल पहले तक पीथमपुर, शिवरीनारायण, मल्हार, चेटुआ आदि कई मेलों की चर्चा देह-व्यापार के लिए भी होती थी। कहा जाता है कि इस प्रयोजन के मुहावरे ‘पाल तानना’ और ‘रावटी जाना’ जैसे शब्द, इन मेलों से निकले हैं।
- रात्रिकालीन मेलों का उत्स अगहन में भरने वाले डुंगुल पहाड़ (झारखंड-जशपुर अंचल) के रामरेखा में दिखता है। इस क्षेत्र का एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक आयोजन बागबहार का फरवरी में भरने वाला मेला है।
बस्तर के मड़ई मेले
- धमतरी अंचल को मेला और मड़ई का समन्वय क्षेत्र माना जा सकता है। इस क्षेत्र में कंवर की मड़ई, रूद्रेश्वर महादेव का रूद्री मेला और देवपुर का माघ मेला भरता है।
- एक अन्य प्रसिद्ध मेला चंवर का अंगारमोती देवी का मेला है। इस मेले का स्थल गंगरेल बांध के डूब में आने के बाद अब बांध के पास ही पहले की तरह दीवाली के बाद वाले शुक्रवार को भरता है।
मेला और मड़ई दोनों का प्रयोजन धार्मिक होता है, किन्तु मेला स्थिर-स्थायी देव स्थलों में भरता है, जबकि मड़ई में निर्धारित देव स्थान पर आस-पास के देवताओं का प्रतीक- ‘डांग’ लाया जाता है अर्थात् मड़ई एक प्रकार का देव सम्मेलन भी है। मैदानी छत्तीसगढ़ में बइगा-निखाद और यादव समुदाय की भूमिका मड़ई में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। बइगा, मड़ई लाते और पूजते हैं, जबकि यादव नृत्य सहित बाजार परिक्रमा, जिसे बिहाव या परघाना कहा जाता है, करते है। मेला, आमतौर पर निश्चित तिथि-पर्व पर भरता है किन्तु मड़ई सामान्यतः सप्ताह के निर्धारित दिन पर भरती है। यह साल भर लगने वाले साप्ताहिक बाजार का एक दिवसीय सालाना रूप माना जा सकता है। ऐसा स्थान, जहां साप्ताहिक बाजार नहीं लगता, वहां ग्रामवासी आपसी राय कर मड़ई का दिन निर्धारित करते हैं। मोटे तौर पर मेला और मड़ई में यही फर्क है।
दशहरा मेला ,जगदलपुर, बस्तर
- मड़ई का सिलसिला शुरू होने के पहले, दीपावली के पश्चात यादव समुदाय द्वारा मातर का आयोजन किया जाता है, जिसमें मवेशी इकट्ठा होने की जगह- ‘दइहान’ अथवा निर्धारित स्थल पर बाजार भरता है।
- मेला-मड़ई के संदर्भ में सप्ताह के निर्धारित वार पर भरने वाले मवेशी बाजार भी उल्लेखनीय हैं।
- मैदानी छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि में व्यापारी नायक-बंजारों के साथ तालाबों की परम्परा, मवेशी व्यापार और प्राचीन थलमार्ग की जानकारी मिलती है।
- बस्तर के जिलों में मड़ई की परम्परा है, जो दिसम्बर-जनवरी माह से आरंभ होती है।
- केशकाल घाटी के ऊपर, जन्माष्टमी और पोला के बीच, भादों बदी के प्रथम शनिवार (सामान्यतः सितम्बर) को भरने वाली भंगाराम देवी की मड़ई को भादों जात्रा भी कहा जाता है।
- भादों जात्रा के इस विशाल आयोजन में सिलिया, कोण्गूर, औवरी, हडेंगा, कोपरा, विश्रामपुरी, आलौर, कोंगेटा और पीपरा, नौ परगनों के मांझी क्षेत्रों के लगभग 450 ग्रामों के लोग अपने देवताओं को लेकर आते है।

भंगाराम मेला ,केशकाल , बस्तर
- जनवरी माह में कांकेर (पहला रविवार), चारामा और चित्रकोट मेला तथा गोविंदपुर, हल्बा, हर्राडुला, पटेगांव, सेलेगांव (गुरुवार, कभी फरवरी के आरंभ में भी), अन्तागढ़, जैतलूर और भद्रकाली की मड़ई होती है।
- फरवरी में देवरी, सरोना, नारायणपुर, देवड़ा, दुर्गकोंदल, कोड़ेकुर्से, हाटकर्रा (रविवार), संबलपुर (बुधवार), भानुप्रतापपुर (रविवार), आसुलखार (सोमवार), कोरर (सोमवार) की मड़ई होती है।
- संख्या की दृष्टि से राज्य के विशाल मेलों में एक, जगदलपुर का दशहरा मेला है। बस्तर की मड़ई माघ-पूर्णिमा को होती है।
बनमाली कृष्णदाश जी के बारामासी गीत की पंक्तियां हैं-
”माघ महेना बसतर चो, मंडई दखुक धरा। हुताय ले फिरुन ददा, गांव-गांव ने मंडई करा॥”
- बस्तर के बाद घोटिया, मूली, जैतगिरी, गारेंगा और करपावंड की मड़ई भरती है।
- यही दौर महाशिवरात्रि के अवसर पर महाराज प्रवीरचंद्र भंजदेव के अवतार की ख्यातियुक्त कंठी वाले बाबा बिहारीदास के चपका की मड़ई का है, जिसकी प्रतिष्ठा पुराने बड़े मेले की है तथा जो अपने घटते-बढ़ते आकार और लोकप्रियता के साथ आज भी अंचल का अत्यधिक महत्वपूर्ण आयोजन है।
- मार्च में कोंडागांव (होली जलने के पूर्व मंगलवार), केशकाल, फरसगांव, विश्रामपुरी और मद्देड़ का सकलनारायण मेला होता है। दन्तेवाड़ा में दन्तेश्वरी का फागुन मेला नौ दिन चलता है।
- अप्रैल में धनोरा, भनपुरी, तीरथगढ़, मावलीपदर, घोटपाल, चिटमटिन देवी रामाराम (सुकमा) मड़ई होती है। इस क्रम का समापन इलमिड़ी में पोचम्मा देवी के मई के आरंभ में भरने वाले मेले से होता है।